ANKAHI BAATEIN
Saturday, June 19, 2010
आत्मकथा
आत्मकथा क्या लिखूं,
मेरा कोई स्वर्णिम इतिहास नहीं,
कॅक्टस का एक फूल हूँ जिसमे
काँटे हैं पर वास नहीं |1||
मिट्टी धूल में बचपन बीता
एक छोटे से गाँव में,
होश संभाला तो पाया
ज़ंजीर पड़ी थी पाँव में |2||
बादल छाए, बिजली कौंधी,
और हुई वर्षा घनघोर,
स्वाती की एक बूँद न बरसी,
रहा ताकता मन का मोर |3||
मुझको खुशियों के बदले में
यादों की जागीर मिली,
क्या क्या सपने देखे थे
और क्या उनकी ताबीर मिली |4||
एक पल में सौ बार मरा,
पर मर के भी न मर पाया,
चाहा तो कई बार मगर,
नहीं पलायन कर पाया |5||
सपने देखे, लक्ष्य चुना,
मंज़िल पाई पर खुशी नहीं,
मन का शून्य नहीं भर पाया,
यद्यपि कोई बेबसी नहीं |6||
जर्जर हुआ भवन जीवन का,
वक़्त की एक अंगड़ाई में,
बूढ़ी हो गयी मेरी जवानी,
बस अपनी तरुणाई में |7||
क़तरा-क़तरा जीवन पाया,
टुकड़ों में जीने की आस,
दरिया था आगोश में फिर भी,
बुझ न पाई मन की प्यास |8||
मन के अंदर रही अमावस,
पर चेहरे पर चाँद खिला,
जीवन जीने की खातिर,
मुझको दोहरा क़िरदार मिला |9||
होठों की मुस्कान दिखी,
पर दिल का दर्द न देख सके,
मेरे ज़ज्बातों में शामिल,
आहें सर्द न देख सके |10||
गैरों की क्या बात करूँ,
मेरे अपने न जान सके,
जिनसे जनम जनम का रिश्ता,
वो भी न पहचान सके |11||
जीवन का भारी भरकम
भाग कट गया है तन्हा,
बाकी का जीवन भी शायद,
कट जाए तन्हा-तन्हा |
कट जाए तन्हा-तन्हा |12||
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